ग़ज़लिया सल्तनत: शेखरी शोख़ी
इसकी
तासीर न चाँदनी
को मिली न
चाँद को मिली
है
ये प्यार है प्यारे!
होश उड़ा ले
जाने को बेताबी
खिली है:
फूल लाख कोशिश
करे उड़ ही
जाती है उसकी
ख़ुशबू
चाँद
जी-जान लगा
दे मगर चाँदनी
का फैल जाए
लहू
आफ़ताब
भी मेरा दोस्त
है और उसका
सुनहरी रौशनी
उफ़क पर जब
उभरती है तो
दोस्ती की ज़द
में माहरू
बेइंतेहा
इश्क़ की रस्में
कुछ बाक़ी हैं
उलझो मत इनमें
तुम ऐसा करो
चाँदनी का उबटन
लगा हो जाओ
रुबरू
सुर्ख़रू
लाज के मारे
हो रही या
गुस्सा के कारन
मेरी जां
आओ बैठो इतने
नज़दीक़ कि चाँद
सिमटाए जुस्तजू
और ऐन अंत
में जब आहट
मिले किसी के
आने-जाने की
तुम फेंकना अपना जाल
ऐसा कि पाँव
चाँदनी की आरज़ू
शेखर
लफ़्ज़ों के तिलिस्म
से बचो वर्ना
बंद कर दूँगी
मैं
एक काजल की कोठरी में जहाँ न चाँद दाग़ी ही न तू
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