ग़ज़लिया सल्तनत


गहरे पानी से किसको डर लगता है भई
पानी तो धो देता है दरपन हर दिन कई:

इतने गहरे मत उतरो कि डूब ही जाओ
आओ ज़रा किनारे बैठ मूँगफ़ली खाओ

गहरा पानी तेज़ बहाव क्या तेज़ बहाव
डूबना है तो पानी से क्या तुम कतराओ

उधर सूरज का डूबना इधर सितार झन
अबके बरस इतना ही सिंगार सजाओ

डूब-डूब जो पार हो वो इश्क़ है प्यारा
नाँव में चढ़ जो पार हुआ उससे शरमाओ

नदिया की उमंग कभी ख़ुशी कभी ग़म
सिनेमा के गीत भी ज़रा गा-गुनगुनाओ

कटता है सीना जब नदी का बाज़ू कटे
इस तरन्नुम को भेज भेजे से पार लगाओ

वो हताश उदास लिबास पहने कहाँ जाएं
आएं यां आएं उदासी उतार कर सताओ

नंगे पैर पानी में डाल छप-छप करते रहें
कोई छाप-तिलक ले कंगन खनखनाओ

उनका दिन हमारा गाँव राजी-खुशी ठाँव
फिर उनसे भी ऊपर कोई कवि नहाओ

कान्हा की चितवन गोपी का दरस लाज
कोई काज न कीजै बस राखिए न जाओ

गए वो मोरनी जंगल की ओर नाचने नाच
हमने कहा तो वो बोले आ साज लजाओ

शेखर गुलबी घाट गाँधी घाट रानी घाट
घाट-घाट का पानी पीओ और पिलाओ

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